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छ॒न्दः॒स्तुभः॑ कुभ॒न्यव॒ उत्स॒मा की॒रिणो॑ नृतुः। ते मे॒ के चि॒न्न ता॒यव॒ ऊमा॑ आसन्दृ॒शि त्वि॒षे ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

chandaḥstubhaḥ kubhanyava utsam ā kīriṇo nṛtuḥ | te me ke cin na tāyava ūmā āsan dṛśi tviṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

छ॒न्दः॒स्तुभः॑। कु॒भ॒न्यवः॑। उत्स॑म्। आ। की॒रिणः॑। नृ॒तुः॒ ते। मे॒। के। चि॒त्। न। ता॒यवः॑। ऊमाः॑। आ॒स॒न्। दृ॒शि॒। त्वि॒षे ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:52» मन्त्र:12 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (के) कोई (चित्) भी (छन्दःस्तुभः) छन्दों से स्तुति करनेवाले (उत्सम्) कूप के सदृश (कुभन्यवः) अपने को आर्द्रपन की इच्छा करते हुए (ऊमाः) सब के रक्षण आदि करनेवाले (दृशि) दर्शक में (मे) मेरे (त्विषे) शरीर और आत्मा के प्रकाश और बल के लिये (आसन्) होवें (ते) वे (नृतुः) नाचनेवाले के सदृश (आ) सब ओर से (कीरिणः) विक्षेप व्याकुल करनेवाले (तायवः) चोर जन (न) न होवें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो अन्य जनों के विक्षेप और चोरी न करके जैसे पिपासा से व्याकुल के लिये जल वैसे शान्ति के देनेवाले होकर सब के शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाते हैं, वे ही श्रेष्ठ यथार्थवक्ता होते हैं ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

ये के चिच्छन्दःस्तुभ उत्समिव कुभन्यव ऊमा दृशि मे त्विष आसँस्ते नृतुरिवाऽऽकीरिणस्तायवो न स्युः ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (छन्दःस्तुभः) ये छन्दोभिः स्तोभनं स्तवनं कुर्वन्ति (कुभन्यवः) आत्मनः कुभनमुन्दनमिच्छवः (उत्सम्) कूपमिव (आ) समन्तात् (कीरिणः) विक्षेपकाः (नृतुः) नर्त्तक इव (ते) (मे) मम (के) (चित्) अपि (न) (तायवः) स्तेनाः (ऊमाः) सर्वस्य रक्षणादिकर्त्तारः (आसन्) भवेयुः (दृशि) दर्शके (त्विषे) शरीरात्मदीप्तिबलाय ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! येऽन्येषां विक्षेपं तायवं चाऽकृत्वा तृषातुराय जलमिव शान्तिप्रदा भूत्वा सर्वेषां शरीरात्मबलं वर्धयन्ति ते एवाप्ता भवन्ति ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जसे तृष्णेने व्याकूळ झालेल्यांना जल शांत करते. तसे जे इतरांना भ्रमित न करता व चोरी न करता शांत करणारे असतात. सर्वांच्या शरीर व आत्म्याचे बल वाढवितात तेच श्रेष्ठ आप्त असतात. ॥ १२ ॥